बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
प्रश्न- भारतीय मूर्तिशिल्प की पूर्व पीठिका बताइये?
उत्तर -
भारतीय मूर्तिशिल्प की पूर्व पीठिका - चार्ल्स फाबरी के अनुसार, “भारतीय मूर्तिशिल्प के आकर्षक तत्वों में एक यह है कि विदेशी प्रभाव का कोई चिह्न उसमें कठिनाई से ही दिखाई पड़ता है। उपरोक्त कथन भारतीय मूर्तिकला की सम्पूर्ण यात्रा के गौरवपूर्ण इतिहास को दर्शकों, कला प्रेमियों और जिज्ञासुओं को हमारे समकक्ष दृष्टव्य हैं, एवं यात्रा के समय इस विदेशी प्रभाव को ढूंढ पाना लगभग असम्भव है। यह सत्य है कि, आरम्भ में कुछ ईरानी और रोमन यूनानी प्रभाव कुछ प्रतीकों व चिह्नों के रूप में भारतीय मूर्तिकला में भी स्पष्ट दृष्टव्य हैं परन्तु बहुत ही कम समय के लिये और वही आगे जाकर भारतीय संस्कृति में इस प्रकार घुल-मिल गये कि उसे अलग से खोजना सरल नहीं रहा। इसलिए यहाँ कहना उचित है कि भारतीय मूर्तिकला आरम्भ से अपने सच्चे अर्थों में मौलिक नव स्वतन्त्र रही है। भारतीय मूर्तिशिल्प का इतिहास दो हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। इस दौरान इसमें भी अनेक परिवर्तन आये, अनेक शैलियाँ बदली, साथ ही कला के प्रति रुचियाँ भी बदलीं, रीतियों-नीतियों में भी अनेक परिवर्तन हुए। मूर्तिकला का इतिहास इन्हीं युग-युगान्तरों में कला की शैलियों, रीतियों, नीतियों व रुचियों में आये परिवर्तनों का ही इतिहास है। जिससे यह जानना कहीं अधिक रुचिकर है कि किस युग में कौन-सी शैली ने विकास किया तथा इससे यह भी जाना जाये कि यह मूर्ति बुद्ध की है, किसी देवी (सीता, पार्वती). शिव इत्यादि की। किसी युग में इन्हीं मूर्तियों को अत्यन्त - सादगी-पूर्ण विधि से बनाया गया, तो किसी युग में उसी के अत्यन्त अलंकरण- पूर्ण तरीके से बनाया गया। विद्वानों के मतानुसार ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी तक भारत में शिल्पकला कम विकसित थी परन्तु ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ही सम्राट अशोक के शासनकाल में हमें पत्थर की तराशी गई मूर्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। जो हमें अधिकांशतः स्तम्भों, शिलालेखों व स्तम्भों पर ही उकेरी गई आकृतियों के रूप में दृष्टव्य है। वस्तुतः भारतीय कला हर युग में प्रचलित इस देश के धर्म और यहाँ की संस्कृति से अनुप्राणित होती रही है और किसी देव मूर्ति की पीठ या उसे पीछे से देखना उस मूर्ति का अपमान समझते हुए वह सदैव दीवारों, स्तम्भों इत्यादि पर ही उकेरी जाती रही हैं।
इसलिये मूर्तियाँ प्रारम्भ में अकेली आकृति के रूप में बनाई गई। वे सर्वथा यहाँ के लोकमानस की धार्मिक भावनाओं व अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं थीं। अतः आगे विकसित नहीं हो सकीं। इस श्रेणी के अन्तर्गत परखम (मथुरा के निकट) का यक्ष अथवा पटना के यक्ष की मूर्तियों को रखा जा सकता है क्योंकि ऐसी मूर्तियों की संख्या कम है। आगे के समय में इनका निर्माण भी नहीं किया गया। अतएव यही कहा जा सकता है कि भारतीयों के लिए प्रतिमा का सही स्थान दीवार पर ही है। दो हजार वर्षों के सम्पूर्ण इतिहास को देखने पर यह ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण भारतीय मूर्तिकला यथोचित रूप में तराशी गई है। भारतीय मूर्तिकला के इसी रूप को हम साँची - अमरावती के स्तूपों, एलोरा - ऐलिफेन्टा के गुफा मन्दिरों और आगे चलकर मध्यकालीन भारत में बनाये गये। विशाल मन्दिरों की बाहरी व आन्तरिक भित्ति पर दृष्टव्य है। भारतीय कला में अलग- अलग कालों में समयानुसार धर्मों की प्रधानता रही है और धार्मिक पक्ष के साथ-साथ ही भारतीय शिल्पकार ने लौकिक पक्षों एवं वानस्पतिक जगत् को भी इन्हीं भित्तियों पर विराट भव्यतापूर्ण स्वरूप दृष्टिगत हैं। भारतीय मूर्तिकला कहीं भी व्यक्तिवादी नहीं वरन् उसका यह समविष्ट स्वरूप सर्वाधिक सशक्त एवं बहुआयामी रूप मध्यकालीन मन्दिरों के मूर्तिशिल्पों में अधिक स्पष्ट उभर कर सम्मुख आया है। जिसमें क्षेत्रीयता का गुण भी समाविष्ट हो जाता है। इस दृष्टि से भुवनेश्वर, खजुराहो, कोणार्क, देलवाड़ा, हेलेविद, बेलूर, ओसियाँ जैसे विश्व प्रसिद्ध मध्यकालीन मन्दिरों की भव्य दीवारों पर बनाये गये हैं। मूर्तिशिल्पों की कला में धार्मिक व लौकिक जीवन विस्तृत आयामों में बनाया गया है। जहाँ पर देवों और ऋषियों के बीच ही अलसकन्यायें, अप्सरायें साधारण मानवों के क्रिया-कलाप, गन्धर्व, व्याल, किन्नर, वनस्पति व पशु-जगत व नृत्य, गायन-वादन, संगीत, आखेट, पूजन, शिक्षा, युद्ध व काम क्रिया के दृश्यों के साथ-साथ रामायण- महाभारत व कृष्ण लीला से सम्बन्धित दृश्यांकन है। इन मूर्तिशिल्पों में शिल्पकार की तकनीकी दक्षता सर्वोच्च स्तर पर अभिव्यक्ति हुई है। चूँकि कला और धर्म एक-दूसरे से जुड़े हैं। अतः यदि इस दृष्टिकोण से देखें तो उत्तर मध्यकालीन इस समस्त शिल्प पर ब्राह्मण बौद्ध एवं जैन धर्म प्रभावी रहे हैं। मध्ययुगीन प्रमुख जैन कला केन्द्रों में है - ओसियाँ, महावीर मन्दिर, देलवाड़ा (विमलवसहि, -लूणवसहि), खजुराहो (पार्श्वनाथ, आदिनाथ, घण्टई एवं अन्य मन्दिर), हेलेविद राजगिर, घणेराव (महावीर मन्दिर), श्रवण बेलगोला, गोमटेश्वर की मूर्ति व अन्य मन्दिर इत्यादि। शेष मूर्तिकला केन्द्र ब्राह्मण धर्म व उसके पाँच प्रमख सम्प्रदायों वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य और सौर से प्रभावित रहे व सम्पूर्ण भारत में इनसे सम्बन्धित मूर्ति शिल्पों के उदाहरण अधिक प्राप्त हुए।
मौर्य, शुंग और कुषाणकाल में विकास के उत्कर्ष पर पहुँचने वाला बौद्ध धर्म गुप्तकाल के पश्चात् केवल पूर्वी भारत (बंगाल, बिहार) के क्षेत्र में ही सीमित होकर रह गया जिसे पाल शासकों का समर्थन प्राप्त हुआ। इस सम्पूर्ण उत्तर मध्यकालीन शिल्प पर अति अलंकरण अधिक बनाया गया। मध्ययुग में जब विदेशी और मुस्लिम आक्रान्ताओं के आक्रमण प्रारम्भ हुए तब देश में वास्तुकला एवं मूर्तिकला सम्बन्धी क्रिया-कलाप अत्यन्त सीमित हो गये परन्तु भारत एक धर्म सहिष्णु देश रहा है जिसमें समन्वय की क्षमता इस सीमा तक देखी गई कि शक, हूण, यवन, कुषाण और मुगल आदि जैसी विदेशी ताकतें भी भारतीय संस्कृति की मूलधारा में समाहित होकर उसका अंग बन गये। आगे चलकर भारतीय वास्तुशिल्प कला ने सल्तनत काल में 'हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित शैली के रूप में विकास पाया। जिसमें भारतीय वास्तुकला के तत्व भी पूर्णतया घुल-मिल गये। देश में इस काल में अनेक सुन्दर इमारतों का निर्माण हुआ। इन इमारतों के अतिरिक्त गुजरात एवं राजस्थान इत्यादि प्रदेशों में सरोवर, कुएँ और बावड़ियाँ बनवायी गयीं। मुगलों के सम्पर्क से हिन्दू राजपूत राजाओं व मराठों में भी मुगल मकबरों को देखा-देखी छतरियों के निर्माण की परम्परा विकसित हुई जिन पर बेलवूटेदार सुन्दर आकृतियाँ, मेहराब, गुम्बद, जालियाँ इत्यादि बनाये गये। अतएव यह स्पष्ट है कि मध्यकाल में भारतीय कलाओं ने मुस्लिम तत्वों को सहृदय अपनाया।
अग्रसर ब्रिटिश काल में भी मूर्तिशिल्पों को प्रोत्साहन नहीं मिला। परन्तु स्व. अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के नेतृत्व में बंगाल में पुनरुत्थान आंदोलन से देश की कला में जागृति उत्पन्न हुई। भारत में धातु मूर्तिकला का भी लम्बा इतिहास है। इस इतिहास को मोहन जोदड़ो और हड़प्पाकालीन सिन्धु घाटी की सभ्यता से जोड़ा जाता है, क्योंकि कांस्य मूर्तिकला का सर्वाधिक प्राचीन और प्रथम उदाहरण मोहन-जोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की मूर्ति है। इस प्रकार कांस्य मूर्तिशिल्पों की दृष्टि से यह मूर्ति आज से हजारों वर्ष पूर्व ही इस कला का तकनीकी ज्ञान उस समय के कलाकारों में दृष्टव्य है। इसके प्रमाण सर्वविदित हैं। दसवीं शताब्दी के अंत तक उत्तर भारत में मुस्लिम शासकों के आधिपत्य के कारण जब मूर्तिकला की धारा अवरुद्ध होने लगी थी तब भी बंगाल-बिहार में आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक पाल व सेन राजाओं के संरक्षण में कलाकार धातु मूर्तियों के निर्माण में लगे रहे। धातु मूर्ति शिल्प कला दक्षिण भारत में अपने चरर्मोत्कर्ष पर चोल वंश के काल में रही। इस काल में शिव को विशेष रूप से व अनेक रूपों में शिल्पांकित किया गया। चोल वंश में नटराज की प्रतिमाएँ महत्वपूर्ण देन हैं। अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ प्रचुर मात्रा में बनीं। ये धातु व कांस्य मूर्तियाँ अधिकांशतः शैव व वैष्णव धर्मों में बनाई गईं। सीता और पार्वती की मूर्तियों को दक्षिण भारत में विशेष रूप से नारी की सम्पूर्ण सुन्दरता के प्रतीक रूप में बनाये गये।
भारतीय मूर्तिकला में आधुनिक युग का प्रारम्भ उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। वस्तुतः आधुनिक कला की शुरूआत यूरोप में ही हुई जहाँ से उसने अन्य देशों की ही भाँति भारत में भी प्रवेश किया। ब्रिटिश काल में हमारे देश में अनेक स्थानों पर आर्ट स्कूलों की स्थापना की गई। जहाँ पर अध्ययन कर देश के युवा कलाकारों ने कला के क्षेत्र में नये शिल्पकला रूपों का विकास कर कला के नये युग का सूत्रपात किया। देश की कला जो कभी विदेशी प्रभावों से 'युक्त थी आज वो अपनी एक स्वतन्त्र पहचान बना चुकी है और विदेशों में भी इसका अपना एक अलग स्थान बन गया है।
भारतीय मूर्तिकला व स्थापत्य कला का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। यह मानव सभ्यता के विकास क्रम से जुड़ा है। वस्तुतः भारतीय कला, भारतीय धर्म और संस्कृति की मूर्ति अभिव्यक्ति रही है। कला में देवता, मनुष्य, पशु और वनस्पति जगत् को एक विराट सन्दर्भ समष्टि के रूप में दर्शाया गया है। कला के विभिन्न माध्यमों में मूर्तिकला निःसन्देह सर्वाधिक सशक्त और बहुआयामी रही है इसमें धर्म की महत्ता रही है। भारत एक मूर्तिपूजक देश है। इस देश के निवासी पूजा की अनेक विधियों का प्रयोग करते हैं जिनमें मूर्ति पूजा, वृक्ष पूजा, सगुण एवं निर्गुण, नैसर्गिक अमूर्त रूप इत्यादि। परन्तु मूर्ति निर्माण का उद्देश्य मूर्ति पूजा में ही रखना नहीं होता बल्कि इससे कहीं ही व्यापक रूप प्रकट है। मूर्ति निर्माण के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) स्मृति को सुरक्षित रखना,
(2) अमूर्त को मूर्त रूप देना,
(3) किसी भाव को आकार देना।
मूर्ति की परिभाषा - डॉ. रामकृष्ण दास के अनुसार, "किसी भी धातु - सोना, चाँदी, ताँबा काँसा, पीतल, अष्ट धातु अथवा कृत्रिम धातु-पारे के मिश्रण, रत्न, उपरत्न, काँच, कड़े और मुलायम पत्थर, मसाले, कच्ची व पकाई मिट्टी, मोम, लाख, गंधक, हाथीदाँत, शंख, सीप अस्थि, सींग, लकड़ी एवं कागज की बनी लुग्दी इत्यादि को उनके स्वभाव के अनुसार गाढ़कर, खोदकर, उभारकर, कोरकर, पीटकर हाथ से अथवा औजार से डलियाकार ठप्पा या साँचा छापकर बनाई गई आकृति को 'मूर्ति' कहते हैं।'
मानव आज से सहस्रों वर्षो पहले जंगली पशुओं के समान ही जीवन व्यतीत करता था। परन्तु ईसा पूर्व पाँचवीं एवं छठी शताब्दी के नगरीय सभ्यता का विकास हुआ। इसी समय से मानव ने पत्थर, मिट्टी व धातु इत्यादि की मूर्तियाँ बनाना प्रारम्भ किया।
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